कोई भी खेमा या वाद हो, साहित्य की पहली शर्त आमजन से जुड़ाव है

देवास। आज सोशल मीडिया के उफान के इस समय में लोगों का साहित्य से जुड़ाव कम होता जा रहा है  मंचों से लेकर प्रगतिशील, जनवादी, राष्ट्रवादी रचनाकारों का साहित्य भी पाठकों को जोड़  नही पा रहा है। तुरंत फुरत के चक्कर मे वाट्सऐप, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर साहित्य के नाम पर जो सामने आ रहा है,उसमें अपवादों को छोड़ दें तो साहित्य सृजन के मानकों पर खरा उतरता नजऱ नही आ रहा। कोई भी खेमा या वाद हो,साहित्य की पहली शर्त आम जन से जुड़ाव है । ये बात साहित्य विमर्श में रचनाकारों ने कही।         साहित्य विमर्श की इस गोष्ठी में ख्यात उपन्यासकार डॉ प्रकाश कांत, वरिष्ठ कहानीकार जीवन सिंह ठाकुर, शिक्षाविद विजय श्रीवास्तव, रचनाकार राजकुमार चंदन तथा कवि मोहन वर्मा ने अपनी बात रखी । विमर्श में हिंदी साहित्य के घटते पाठक वर्ग और बदलती अभिरुचियों के साथ इनके कारणों पर भी चर्चा की गई। विजय श्रीवास्तव ने कहा आज के दस बेस्ट सेलर में से आठ अंग्रेजी के और एक पंजाबी, एक बंगाली लेखक के नाम है । नई पीढ़ी हिंदी के ख्यात नाम लेखकों के साहित्य तो दूर उनके नाम भी नही जानती । प्रगतिशील और जनवादी अतुकांत कविताएं और सपाट कहानियां लेखक वर्ग के बीच ही सीमित होकर रह गई है । आम जन से इसलिये नहीं जुड़ पा रही क्योंकि उनमें लय, ताल,भावनाओं का अभाव नजऱ आता है । नई पीढ़ी का पश्चिम मुखी और संस्कार विहीन होना भी उन्हें साहित्य से विलग कर रहा है। डॉ प्रकाश कांत ने कहा कि नानी दादी से बचपन मे  बारता सुनने और कोर्स में सरल सहज कहानी कविता पढऩे से पहले की पीढ़ी को जो दिमागी खुराक मिलती थी उसकी जगह आज अन्य साधनों से और कुछ मिल रहा है। कैरियर के लिए  समय के अलग अलग खांचों में बंटी नई पीढ़ी के पास अब अखबार तक पढऩे का समय नही है तो साहित्य के लिए क्या कहा जाए ।    जीवनसिंह ठाकुर ने कहा कि हिंदी साहित्य की उर्वरा ज़मीन अब कहीं गुम हो गई है । तुरत फुरत रचीभावविहीन रचनाएं पाठकों को मोहती नहीं ।  महादेवी वर्मा,निराला की जगह नई पीढ़ी की पसंद कुमार विश्वास है । सोशलमीडिया की अधिकांश गुणवत्ता रहित रचनाओं से पाठक जुड़ नहीं पा रहा और निराला सूर, तुलसी,को पढऩे का धैर्य नही है। मोहन वर्मा ने कहा कि कवि सम्मेलनों के मंचों पर चुटकुले,गोष्ठियों में एक दूसरे को सुनना सुनाना और कथित बुद्धिजीवियों की किसी खास एजेंडे के तहत रची रचनाएं धीरे धीरे अपना पाठक वर्ग खोती जा रही है जो चिंताजनक है । किताबें,साहित्य पढऩा लोगों की प्राथमिकता में इसलिए भी नही है कि न तो उनके पास समय है और न रुचि । सोशल मीडिया के ज्ञान से सब ज्ञानी हो गए है ऐसे में साहित्य की चिंता कौन करे। राजकुमार चंदन ने इसका कारण वैश्विक बताते हुए कहा कि आज विश्व की हर भाषा बोली अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है जिसमे हिंदी और साहित्य भी शामिल है । साहित्य से और जीवन से आज रस ही गायब है तो जुड़ाव कैसे नजऱ आएगा । नम्बर एक की होड़ और सांस्कृतिक अवमूल्यन के इस समय में जब भाषाएं अपना अस्तित्व नही बचा पा रही है तो साहित्य और पाठकों की चिंता कौन करे ये समझना भी जरूरी है।